नींदड़ की धरती आज खामोश नहीं है। यह रो रही है, चीख रही है, और अपने बच्चों—यहाँ के किसानों—की पुकार को गूँज बना रही है। सीकर रोड पर हरमाड़ा की यह माटी सिर्फ मिट्टी नहीं, यह पीढ़ियों की मेहनत, सपनों, और स्वाभिमान की गवाह है। लेकिन जब से जयपुर विकास प्राधिकरण (JDA) ने नींदड़ आवासीय योजना के नाम पर 1350 बीघा जमीन को निगलने की ठानी, तब से यहाँ की हवा में उदासी और संघर्ष की गंध घुल गई है।यह कहानी सिर्फ अधिग्रहण की नहीं, यह वादाखिलाफी की भी
है। 2017 में, जब किसानों ने अपनी माटी को बचाने के लिए "जमीन समाधि सत्याग्रह" शुरू किया, तो पूरा इलाका गूँज उठा। वे खुद को जमीन में गाड़कर चीत्कार कर रहे थे, "यह हमारी माँ है, इसे मत छीनो!" उनकी आँखों में आँसू थे, हाथों में मिट्टी की सौगंध, और दिल में एक उम्मीद कि शायद सरकार सुनेगी। उस वक्त सरकार और JDA ने झुकते हुए समझौता किया—वादा किया कि मुआवजा होगा, पट्टे मिलेंगे, और उनकी बात सुनी जाएगी। किसानों ने भरोसा किया, पर यह भरोसा जल्द ही टूट गया। वादे कागजों तक सिमट गए, और न मुआवजा पूरा मिला, न ही पट्टों का वादा निभाया गया।2020 में एक बार फिर किसानों ने उसी जख्म को कुरेदा। "जमीन समाधि सत्याग्रह" का दूसरा दौर शुरू हुआ। इस बार उनका गुस्सा और दर्द पहले से गहरा था। वे सवाल उठा रहे थे, "जब हमने सब्जी और दूध की सप्लाई रोकी, जब हमने अपनी जान दाँव पर लगाई, तो क्या सिर्फ झूठे आश्वासनों के लिए?" सरकार और JDA ने फिर से बातचीत की मेज सजाई, फिर से वादे किए—कि उनकी जमीन का सम्मान होगा, कि विकास में उनकी हिस्सेदारी होगी। लेकिन ये वादे भी हवा में उड़ गए। कोर्ट में 30 लाख रुपये प्रति बीघा जमा हुए, पर न तो वह राशि आज के बाजार से मेल खाती है, न ही किसानों के हाथ में कुछ ठोस आया।आज, मार्च 2025 में, नींदड़ के खेतों में हवा नहीं, एक अनसुनी चीख बह रही है। यहाँ का किसान अब थक चुका है, पर हारा नहीं। वह पूछता है, "विकास का ढोल कौन पीट रहा है? वो जो हमारी माटी पर कंक्रीट के महल बनाएगा, या वो जो हमें बेघर छोड़ देगा?" उसकी आवाज़ में दर्द है, क्योंकि यह जमीन सिर्फ उसकी आजीविका नहीं—यह उसकी पहचान है। यह वही खेत हैं, जहाँ उसके दादा ने पहली फसल बोई, जहाँ उसने अपने बच्चों को चलना सिखाया। और अब उसे कहा जा रहा है कि इसे छोड़ दो, क्योंकि शहर को "आवास" चाहिए।किसान की आँखों में अब सिर्फ आँसू नहीं, एक जलता सवाल है—"क्या हमारा स्वाभिमान इतना सस्ता है?" 2017 और 2020 के समझौते उसके जख्मों पर नमक हैं। हर बार उसे उम्मीद दी गई, और हर बार उसे ठगा गया। यह माटी मूक नहीं रहेगी। यह हर टूटे वादे को याद रखेगी। यह हर उस सत्याग्रह की गूँज को सहेजेगी, जब किसानों ने अपनी जान दाँव पर लगाई। क्योंकि यह जमीन सिर्फ मिट्टी नहीं—यह उनकी जिंदगी है, और जिंदगी कोई बेचता नहीं।